Thursday, March 10, 2011

अन्त नहीं है ये

(कवितायों)

बलराम

पैनोरामा पब्लिकेशन
चण्डीगढ़





















पहले सूर्यास्त के साथ जुड़ा हुआ करता था।
सन्ध्या काल
ये उन दिनों की बात है जब आसमान हुआ करता था
अविभाज्य
दूर हरित खलिहानों के परे
यां नील अम्बुधी के बीचो-बीच
लटका करता था एक दिव्य संकल्प
ये उन दिनों की बात है जब त्रिशंकु सिर्फ मिथिहास था
खण्ड-खण्ड-खण्डित है आसमान,
एक खन्दक की ओट से निकल
दूसरी की ओर भागता है सूर्य
हतप्रभ तुम ही नहीं जयद्रथ भी है।
र्पाथ, मुझ से अब स्पष्टता की मांग मत करो
मैं अब युग प्रवर्तक नहीं, प्रवक्ता हूँ मात्र
खोए हुए क्षितिज का।
øøøøøø

धुँधलका अब क्षितिज के उस पार ही नहीं था
शाम हो रही थी या भोर प्रथम पहर
कोई सरगोशी उदासी का सबब पूछे है
हाथ फिराता हूँ, उजड़े युग का जंगल
चेहरे पे चिपक गया है
सर को टटोला तो शेष सा
कुछ भी नहीं
मुस्कुरा कर मुखातिब की जानिब
देखता हूँ जो दूर जा चुका है
मेरा हाथ जंगल में उलझ के रह गया।

øøøøøø




इस से पहले कि मेरी आँखों की तन्हाईयां
पिघल कर गलियों मे फैल जाएं
और सारा शहर डूब जाय
चले भी आओ
चले भी आओ कि शहर को
अपने ही बहुत $गम हैं।
मुझे उन में इजाफे का
गुनहगार मत करो
चले भी आओ
सनम या खुदा
मेरी तलाश तुम जो भी हो
इस से पहले ....
øøøøøø

इस से पहले कि मैं, उस की
शीतलता यां आँच
का अहसास कर पाता
वो ओझल हो गया,
गाँडीव से निकले तीर सा
शून्य में
साथ लिए अपने, मेरा
हवाओं में लिख देने का दावा
और शेष रह गया है
केंचुली सा।
øøøøøø

ऐ सृष्टा, मैं तुच्छ रचना
पल प्रतिपल
तुम्हारी असंख्य जूने काटता
प्रलय व महाप्रलय
अंग प्रतिअंग में समेटे
तलाश रहा
अस्तित्व व अनास्तित्व
की अपारदर्शी धुन्ध में
क्यूँ क्षुद्र हो गया है
तुम्हारा अस्तित्व इतना
निहित रहा होगा ये भी
मेरे ही अहसास में शायद।
øøøøøø
छनती आ रही, तुम्हारे ज्योति स्वरूप की
दूधीया रश्मियां, स्याह काले बादलों में
सुरमई छटा बिखेरती, दूर क्षितिज से
परे के अनँत रंगों से, नभ मण्डल को
आलोकित करती, युग रीते चक्षु-द्वीप
उमड़ते आते हैं, भूल चिर मर्यादा,
बहे जा रहे बोध-अबोध, समवेत,
अज्ञेय, अनागत दिशायों में,
मैं आ रहा तुम्हारे अनुपम सौन्दर्य-गर्त
में हो आहुति, इस आलौकिक क्रीड़ा की।
øøøøøø

अतल शून्य में डूबता-उतराता
समय की टूट चुकी कड़ी में बिखरा
अबोध की ओर बहता ये
यथार्थ ही होगा।
क्या नहीं रहा अनिवार्य,
कार्य के लिए कारण का अस्तित्व
या कारण का कार्य में बदलने का विधान
रिक्त गर्भा ..... प्रसव पीड़ा क्या है।
अन्नत तलाश की संज्ञा लिए अस्तित्व
भी आभास देता है, मृत यां जीवित
पितृों के श्राद्ध कर्म सा।
क्या सम्भव होगा कभी,
कि आने वाली पीढ़ीयं चुन सकें
अपने जनकों को।
øøøøøø

भू-काल गणना का समाप्त हुआ एक अध्याय
एक परिक्रमा सूर्य के और कितनी स्वयं के गिर्द
कितने ज्ञात व अज्ञात ग्रहों और नक्षत्रों ने दिए
परस्पर एवं स्वयं को चक्कर,
समय के इन तमाम रुपों से पृथक,
सब से टकराते, सब में बदलते,
मेरा ये सम्वत,
जो मेरे लिए भी इन्द्रजाल में बदल जायेगा,
पहुँचा है ऐसी त्रिवेणी पर
जहां कभी कोई पर्व सम्भव नहीं होगा
कोई निश्चित अवधि नहीं रही किसी इकाई की यहां
एक ही बिन्दु में समाता बहु आयामी काल
कभी बिखरता निराकार में
सभी वादों-अपवादों को मुंह चिढ़ाते
श्रद्धा सम प्रचण्ड कहीं, इड़ा सम जड़वत।
देख सकता हूँ मैं यहां, तरल सत्य की
कुछ ध्वनियों को रुह से फूट
खला में वस्त्र (काया) धारते उतारते
कितना असर्मथ हूँ मैं इसे पकड़ पाने को
स्मृति मन्थन करता पाने को अनादि स्रोत
जब कुछ ना था, बस ये था
नहीं चाहता मैं अभाव को ही स्थूल में
व स्थूल को ही अभाव में
बदलते देखना
øøøøøøø
अभी खेलती हैं चन्द नदियां मेरे गिर्द
प्रचण्ड वेग से हवायों को तरंगित करती।
गामज़न हैं अभी नक्षत्र सनातन गति से
हृदय-चुंभी बुलन्दीयों पे इतराते।
चैतन्य है अभी तुम्हारी
प्रतिमा
और अभी मैं हूँ
ेएकलव्य।
होने की प्रक्रिया में हो रहा अस्तित्वहीन।
रीतिबद्ध नहीं हुई इस बार भी दीक्षा।
इस से पहले कि माया का ये तडि़त आवरण,
किसे उदण्ड प्रकाश किरण में खो जाए,
और ये नदियां, ये हवाएं, ये गतियां, ये नक्षत्र
और ये प्रतिमा और एकलव्य
हो जाएं किसी निराकार की लीलामात्र
मैं उपस्थित हूँ गुरुदक्षिणा को
याचक हो, उदार मन से मांगो, मांस का ये
अंगुश्त भर टुकड़ा जिसने सिल दिया था, मुँह बाँए
समय के जबड़ों को, हो भी ता क्या रोक पायेगा
धर्म-भूमि को होने से कुरु भूमि। संशय मुक्त रहें देव
अक्षत रहेगा अर्जुन का स्थान इति तक। लेकिन त्रासदी
तो नियत है गुरूवर, विपरीत से लड़ते यां बिन लड़े ही
रूपान्तिरत हो जाने की उसी में। जान पाओगे मर्म, इस
कटु सत्य का, भोर से पहले? हो सकेगा उऋण
गुरूदक्षिणा से
एकलव्य?
øøøøøøø
अजन्मा माया
विदेह चेतना
तृषित गर्भाग्नि को।
सन्तति
आकाश गंगायों के
मानस उदर की।
विस्मृत
तिडक़ चुकी घडिय़ों को।
समय की दरारों में
तलाशती हूँ
अस्तित्व।
छितरा रही धरा पे
सम्भव नहीं
ध्यानावस्था।
पुरूष व प्रकृति
अज्ञेय
दोनों को
्अजन्मा .... निमित ....
निर्वाण
परामाया नहीं
øøøøøøø
तुम? मैं ? तुम?
तेज़ चलती हैं हवायें तुम्हारी साँसों सी
झुकी कन्धों के बोझ से, लिए अजनबी गन्ध
घुल गया है तुम में कुछ
जो नहीं हो तुम
उलझती बादलों से छितराती सूरजों को
सीत रंग
आकाश
सी आँखें
कुरेदती हैं टूटे धरातल को
भर रहा बियाईयां
जो
नहीं हूँ मैं
रुक गई हैं हवायें
साँस
नि: स्पन्द।
øøøøøøø

किन्हीं माँस पिण्डों के
अक्रूर यथार्थ
से नहीं
बैसाखियों पे टिकी
पीतमुखी
दीवारों के उदर से
जन्मा हूँ
मैं।
काल के किन्ही मूच्र्छित
पलों ने
अस्फुट ध्वनियों में लपेट
मूक हाथों से
बोय!
शोर के गहन सुन्न
गर्भ में ......
........?
तेजस व छदम्बिंब।
धीरे-धीरे उतर गई है
सीढ़ीयाँ
अलसाई चाँदनी
किटकिटाती सूर्य किरणों ने
कुतर दिए है
रंग
हवा के पंखों से।
संभालती
वैसाखियों को दीवारें
उलझती हैं
बहते पानी में, फिर
पैठने को।
øøøøøøø

मरणासन्न वेदना
टटोलती
ढलती परछाईयों
पे अटके
आसमान के
ढलक चुके कन्धों को
जिस की धूप में सिकी
उसकी
विकराल काया।
चटाक से टूट गया
कुछ
चीरता शून्य को
बुझी-बुझी हवा
दबे पाँव
तलाश्ती
राख
निगल गई जिसे
अति श्रृंगार की
लिप्सा।
øøøøøøø
प्रगति
रीढ़ टूटने का
डर
नहीं मुझे
मैनें अभी अभी
अपनी आत्मा
तबदील की है
केंचुए से
जो उसी वक्त हो गया
पानी-पानी
मुझे भी
दरकार है
एक मु_ïी नमक
पिघल जाऊँगा
पानी-पानी नहीं
हां
ओर जरखेज़
हो जाऐगी जमीन पहले
से
बो सकेंगे उस में आप
कुछ भी
रीढ़
के सिवा।
øøøøøøø
तुम्हारे असंख्य अंगों से झरता
मैं समा रहा तुम्ही में
युगों की तृष्णा लिए
अतृप्त मूल में तुम्हारे
प्राण हो बहूँगा मैं
आभा सा छिटक जाऊँगा
हर फूल हर पात में
विस्माद ये पुन: मिलन का
निर्बाध बहे हो वाहक
पुनरावृति का
सन्तापहीन
परे शोक से
विहार हो चित बुद्धि से परे
झरूँ झर-झर फिर-फिर
हो अधर से अधर की
अक्षुण्ण पिपासा
øøøøøøø
लौट आया हूँ फिर
तुम्हारे पास
वही चिर-सीमा
कोई अमेद्य बिन्दु
जहां
थम गया
वेदों का अनादि
गान
अटक गया कोई
भटका बादल
जड़वत
फँस गई हो सांस
ज्यूँ बीच गले में
नीलकण्ठ के
तक्षक ओढ़े पड़ी रही
ज्योत्स्ना
बेसुध
और
नेति-नेति के
टूटते स्वरों
में बिखर
भर गया मैं
पूरे शून्य में
पर लांघ नहीं पाया
अगुश्त भर ऊँची दीवार
रक्षित थी
तुम्हारे भृकुटी बल से
हाँ सुना
अच्छी चल रही है
राजकुमारों की शिक्षा
भविष्य
चुपचाप रींगता है
बहुत कटु है
कुल्हाड़ी का कोलाहल
बलात दी गई मुक्ति

भीख में मिला मोक्ष
दोनों त्याज्य हैं
मैं दौड़ आया हूँ
तुम्हें छोड़
उसी कंटक-पथ पे
एक बार फिर
तुम्हारे पास
कुरू-भूमि
अवांछित गर्भ सी
उतर गई है
मेरे भीतर
दोनों सेनायों के
बीच
खड़ा हूँ
कर-हीन
कृष्ण-हीन
देख भी नहीं पा रहा
किस-छोर हो तुम
बलिश्त भर उठ आई
है दीवार या
आँखें ही बुड़ा गई हैं
लौट रहा हूँ फिर
तुम्हारी ओर
अब भी दीवार के पीछे से
फन उठाता है क्षितिज
पलकों के पीछे डूबती सांझ
फूटती है रोम-रोम से
पाषाणों के सीनों से झांकते
तृण
बतियाते हैं हवा से
दोष सर्वथा दीवारों का नहीं
दृष्टि के साथ वाणी भी तो
दिव्य चाहिए
अभी तो लिप्त है, कवि
अंध-नीरव-अचेत
निवीर्य बोध से
हाफता फिरता
अनादि काल से
खंडित स्मृतियां
विभाजित श्रुतियां
तुम ... व .... प्रतिमा
सत् .... व ... सत्य
कहीं कोई सन्धि-स्थल
कि
फूट पड़े आकाशगंगा
और
शिवमय हो जाए
सारा अस्तित्व
छोर हीन धारा
बहे-परे
और छोड़ जाए
सब वेगों को पीछे
लौटना

कही जाना नहीं
øøøøøøøøø


वरूण व्यथा
आदि, अन्त और मध्य के सिवा
सम्भव है कोई स्थिति
महसूस हुआ लटकते हुए
अधर में
मेरी ही गोद में फली फूली
गंगा और नील की सभ्यतायें
दैव हो यां दानव भले
्आया जो लिए पीर पर्वत
खाली नहीं लौटा द्वार से
पुराणों में प्राण हो बहा
समाया उपनिषदों में सार सा
रहा रत्न निधियां लुटाता
दोहन करने वालों में भी
बहलाता खुद को कि
जीवन-दाता हूँ मैं
पर आज जब, मेरे ही आँचल
की छाँव तले पला ये जीवन
झुलसता है मेरे ही सीने की
आग में
ग्लानि का विष उफनता है
नसों को फाड़ता हुआ
मृत हुआ अमृत
जो छलका किया
आत्म-कलश में
कोई नहीं आता द्वार पे
शिव नहीं लेते मानव-रूप
काल छाया में बदला
टूटती सांस की डेरीयों में उलझा पड़ा हूँ
गिनता अन्तिम घडिय़ां
øøøøøøøøø

आषाढ़
छितरा गए हैं मौसम आसमान वस्त्रहीन है
हवा हुए बादर, इतराते फिरते थे जो,
तेरी मुंदी-मुंदी सी पलकों से रंग चुरा
मयूर तांडव-रत, स्तब्ध स्वप्निल दिशाऐं
निहारती अपलक दिगम्बर हवायों को
सिमट गई हैं जो अंग छिपाती आँखों में
झाँकती बगलें
मुक्त-काया से, त्रस्त विराट
स्पन्दन्हीन, अवाक, नीरव।
øøøøøøøøø
दूर तक चली आई है नृतन रत हवायें
तुम्हारे प्यार की खुशबू से उन्मत
कितने मौसम घिर आऐं हैं
एक साथ
लक्षकोट की लोह दीवारों को बेध
पुष्प-धन्वी निगाहें पहुँच गई
उस छोर मुझ से पहले ही
मुझे ज्ञात हुआ, विदा होना,
सदैव जुदा होना नहीं होता
रहता है मध्य एक मूक मानस संसार
तना नट रज्जु सा
प्राकृतिक-पराप्राकृतिक बंधनों से मुक्त
श्वास भरते अहसास हो हलाहल की तिक्तता
तो देखना उस मौन को, कोई सुपरिचित चेहरा
जो विदा हुआ
नथुनों से छूटते ही जब फूट उठें अर्मी लहरियां
तो ध्यान से सुनना अंतरंग का अनहद स्पन्दन
विदा होना ...... जुदा होना नहीं।
øøøøøøøøø

प्रकाश की वो किरण जो कौंधी
और रूह की खाईयों तक रूशना गई
ब्रह्मïा की तरह मैं भी कमल नाल में
उसका स्रोत ढूँढता रहा, जो जाने कब का
अपने अस्तित्व का रूप खो या बदल चुका था
कोई अग्नि भी तो नहीं मेरे पास
तप के लिए
इक हूक है यां कसक
मैं जुगनू क्यूँ ना हो सका।
øøøøøøøøø
सुरों व असुरों ने ले अमर्यादा रज्जु
और कर दम्भ को रई, किया है मन्थन
अठखेलियां करता स्वर्णिम रश्मियों का
हलाहल, पोषित हुआ उदर में, हमारे ही
रूधिर से, अर्जित नहीं हुई फिर भी
कोई संज्ञा ही। जननी नहीं है हम
है केवल वाहन, किन्ही अमूर्त मूल्यों-अमूल्यों का,
नहीं उत्तरदाई अपनी ही गति की
जो हमारी हुई ही नहीं कभी, सारथी हो तुम
ये भी है भ्रान्ति तुम्हारी,
लक्ष्य कोई भी रहे, अन्ध विनाशगर्त
है तुम्हारी भी नियति
øøøøøøøøø
तुम आए थे ...?
तुम आए थे शायद, लेकिन मैं ही तुम्हें पहचान ना सका
या फिर ये भी मेरे ही अन्तर्मन की मृगतृष्णा रही हो शायद
मेरी दृगभ्रान्ति की कोई मयदानवी रचना।
मैं, जो ना सडक़ और ना ही संसद को यथार्थ कर सका
वितृष्णा के किस चौराहे पे खड़ा हूँ, अबोध व अगम्य
सा लगता है ये जानना मुझे, शायद ये भी मेरा भ्रम हो
फिर भी मैं जो खड़ूा हूँ, यहां, वहां यां कहीं भी
नहीं समझ पा रहा हूँ कि ये निरीह पंछी
क्यूँ शून्य से भी वसीह आकाश को अपने
सकोमल पंखों पर उठाए फिरने का भ्रम पाल रहे हैं
इन का गन्तव्य क्या है, दाना या जाल,
कोई अगोचर सैन्दर्यानुभूति या प्रयोजनहीन तलाश।
दशों दिशायों से कृष्णवर्णा मेघ घिर आए हैं।
निशा उतर नहीं फूट रही है, चाँद नहीं है
फिर भी कभी-कभी जुगनु अपना अहसास दिलाते हैं
कोहरे और धुन्ध के वसनों में सिमटी वसन्धुरा
पर नन्हीं-नन्हीं बूँदे गिर रहीं है, प्रारम्भ प्रलय या
नवरचना का, नहीं समझ पा रहा, निशाचर नहीं हूँ
लेकिन खड़ा हूँ चल या घिसट रहा हूँ
आए थे तुम पर कहाँ हो, नहीं जानता
पीछे या आगे, उत्तर या दक्षिण, सलीब सा खुद से बांधे
इस प्रश्न को बढूँगा, दिशा यदि भ्रान्ति है, तो मैं इससे
तुम्हारा व स्वयं का नामकरण करने को विवश हूँ
øøøøøøøøø
सहवास
ठहर गया कहीं भीतर
वो एक पल
काल
जब ठिठक गया था
लम्हें के लिए
किसी बाँवरे मेघ से
तुम उमड़ पड़े थे
मेरे सीने पे
और मैं
एक ही कदम में
लांघ गया था
तुम्हारा
वामन रूप
समय सांस रोके
सिमट गया था
हमारी सांसों में
द्रवित हो गया था
जिन मे सारा
अस्तित्व
और ओढ़ लिया था
हम ने
दिगम्बरा व्योम
कुछ सकुचाया सा
हुलसाए अंतस में हमारे
उतर गया वो पांव दबाए
और हम अबोध
तिरते ही गए
सोम ऋचा से
उस पल में जहां
काल-अकाल
जीवन-मृत्यु
शून्य-आकाश
नश्वर व अमोध
लीन होते हैं
परस्पर
तुम्हारे छुअन की वो घड़ी
जिहा पे धरते ही चन्द्रिका
घुल जाती आँखों में
मैं झरता ही रहता
आलोक सा तुम्हीं में
तुम आकुल निसा सी, छोरहीन
दौड़ती, तोड़ती किनारे, फांदती दिशाऐं
सरसती जाती रोम-रोम में रमन करती
आर्त पुकार करते भास्कर
पर हम मूँदे ही रहते पलकें
ऊषा रोक लेती दस्तक
सन्ध्या रुकी रहती परे
निहारती स्वप्निल सी,
ढुलक जाता उनका लालित्य
धिर जाते युग हमारे संग
रंगों के अतल भँवर में,
अटखेलियां करता चौकड़ीयां भरता
पवन रन्ध्रों में गुपचुप
फुसफुसाता कोई राग
वीणा से बज उठते
तुम्हारे ओंठ
तुम्हारी ताल पे
रूनक-धुनक जाते
मेरे अंग-नूपुर
लज्जारूण हिम-गिरि
करते नृत्य गुन्जित निर्झरों संग
बह जाते धवल भुजपाश में
बहक-बहक जाती वादियां
अखिल विभूत
हो रहता
महागान
øøøøøøøøø

मैं तेरी छोड़ी हुई सांस से
जीवन लेता हूँ
लेकिन जब तलाश नहीं पाता
उस पे तुम्हारी पदचाप
वो
बोझल हो जाता है
हवा हो जाती है सांस
रह जाता है, मात्र
पिचकता फूलता
मांसपूंज
रंगहीन
हवा ढोती है बोझ
और
घुटन से फटने लगती है
सन्धी बेला
मुर्झा जाता है सारा
अस्तित्व।
øøøøøøøøø
तुम्हारी पलकों पे लिखी इबारत
किन्हीं आड़ी तिरछी रेखायों में, खो भी जाए
तो ये अन्त नहीं
सरसराहट तुम्हारे स्वरों की,
धुल जाए हवा में बहते-बहते, हो जाए नि:शब्द
तो भी अन्त नहीं है ये
अतल अवचेतन नभ गुहायों में
उतर जाए परछाईयां
और स्मृतिपट हो शून्य
अन्त नहीं है फिर भी
यह व्यथा अमर है
अजन्मा।
øøøøøøøøø
मैंने चाहा था भर जाना
तुम्हारी आँखों के उजस में
बह जाना होंठों की तरलता में
सूख जाना वाणी की सरसता में
चाहा कि डूब जाऊँ तुम्हारी देह
की क्षितिज-रेखा पर
हो जाऊँ आसमान
और तुम्हें थिरकता देखूँ
चन्द्रभागे।
मैं होना चाहता हूँ वो पोत
जहां अन्तिम हिचकी के वक्त
तुम मिलो खुद से
और अटकी हुई सी खामोशी भर दे
जीवन भर का
रिक्त ....।
मैं धारणा चाहूँ तुम्हें।
ज्यूँ अन्धेरा ओढ़ लेता है प्रकाश
रम जाना चाहूँ तुम्हीं में
कि तुम हो जाओ
राम।
øøøøøøøøø
हवायों की प्रतिस्पर्धा में
उलझा ही रहा मैं
और
कतरा-कतरा आस्माँ
उतर गया
मेरे भीतर
अहो-भाव हुआ मैं
बह गए हों सारे मैल ज्यूँ
धुल गए दिशायों के चेहरे
और मैं धार रहा हूँ तुम्हें
तिरोहित हो रहा हूँ
तुम्हीं में।
øøøøøøøøø
ग्रहण-मिलन
मैं जानता हूँ
मैं हूँ
तुम्हारे भीतर।
दुपहरीली धूप के
धुले खिले रूप में
गूढ़ स्यामवर्णा
चितवन सा।
आलोक की फैली कणियों
के गर्भ में धुला
बालामावस सा।
उचक-छलक आता
किसी रोज मुखमण्डल पर
घड़ी भर कि
तीर्थस्थलों से उड़ती धूल
से अट जाता अम्बर
कल-काली कोलाहल से
धँस जाता व्योम,
ओ स्नेहमयी
मात रूपे
भर जाती हो घूँट
मेरा! ओ रक्षिते!
कैसा तपता है
चेहरा तुम्हारा
उज्वल तापसी दिशायों में।
अहो ...! हो रहे है मंगल कैसे-कैसे
अहा ...! कैसा विचित्र उत्सव
भर-भर रहे नाद हवायों के उदर में
बिखर रहा उन्माद चहुँ ओर
देखो तो धवलमुखी
कैसा अभिनन्दन है तुम्हारा
भू-लोक, धूलोक, अनुलोक की
समस्त नदियां उमड़ पड़ी हैं
तुम्हारी अभ्यर्थना को
अंजलिबद्ध समस्त अस्तित्व
कुछ मदिराया सा-हर्षाया
नत है तुम्हारे चरणों में।
वीणा से तुम्हारे ओठों पर
कुछ है अनकहा, ज्यूँ
सांसों की बांसुरी पे
कोई अनबज अलाप
कांपता है रह-रह
कैसा वैचित्रय है
अदभुत-अबूझ
ये रूप तुम्हारा।
कैसा आश्वस्त हूँ मैं
तुम्हारे भीतर
कितनी विश्वसनीय है
सुरक्षा देखो तो
कैसा खिल रहा हूँ मैं
बस बिखर जाने को हूँ
देखो तो एक बारगी
मुँदी पलकों से .... आओ
नमन है तुम्हें
उतर आओ भीतर
कलेवर रख आओ बाहर
शान्त होने दो शंख गर्जन
मुक्त कर दो सब नूपुर-कंगन
निकाल-फेंको ये धसे शंक डंक
होने दो मुझे विस्वस्त ....
तुम्ही हो भरी मेरे अन्तस
अगम्य-अबोध-अबूझ
निद्र्वन्द-निर्विकल्प-नि:चेष्ट
कैसा अन्दोलित है: सहवास
अहो .... अहो .... अहो ....।
øøøøøøøøø

अंजलि भर प्रेम तुम्हारा
दौड़ता है नसों में
तोड़ता किनारों को
फाँदता दिशाऐं, उलांघता उलाहने
मैं पगलाई सी, ढूँढती हूँ तुम्हें
लिए इन्द्रधनुषी गुलदान
तुम जो घुल गए हो
भीतर-बाहर
पूछती हैं पता हवायें
ढुलकते हैं बादल पलकों पे
और मैं बहती ही जाती हूँ
अंजलि में तुम्हारी।
øøøøøøøøø
प्रेम सह रहा है प्रसव पीड़ा कि
दे सके जन्म एक दृष्टि को
जो भर दे झोरी दृश्य की
स्नेह से, सुंदरता से कोमलता से
हजारों नरकों से भीषण गर्भाग्नि में
सिकती है दृष्टि कि उतर सके ज्वर से
झुलसे दृश्य की पेशानी पर
और डुबो दे उसे प्रेम की अगाध शीतलता में
दृष्टि पूर्व का दृश्य फुँफकारता है
उपजाता है भ्रम दृष्टि का
प्रेम का, सुन्दरता का क्रमश:
अंग-भंग करता है देह को
रोपता है उस में शक्तिमन्थन का विष
देह बँटती है, नारी या पुरूष
अबला, अपंग, निरीह, भोगमात्र
घुटती है भीतर ही सैंकड़ों चिताऐं
घुटनों में सिर दबाए, अंग प्रतिअंग
है कब्रिस्तान, पथराती है कोमलता
होता है गर्भाघात प्रेम का, दृष्टि का
स्नेह का, शौर्य का सुन्दरता का
दृश्य का
क्रमश:
øøøøøøøøø
अहो!
शून्य शिल्पे
तेरा मूक वाध
क्षुधित हूँ तुम्हारी सांसों की तृषा का
बहो सोख रँधता जो दर्प अन्तस
बिखरने दो दिशाऐं
झरने दो आलिंगन
डूबने दो शिखर सब
बह जाने दो मन
बे-पाँव बाजो
झना झन-झना झन
टपकने दो टेढ़ा
गगन का ये आंगन
धारो धरा का ये
मुखरित कुँअरपन
वो नाचे अनाहत
मौनी है स्वरतन
ये कैसा स्वयंवर
वर बिन वधु बिन
है पाश कैसा ना बंधता ना खुलता
कर बद्ध श्रुतियों के बिफरत हैं लोचन
झरा कौन निर्झर
बहा कौन निहचल
किसे किसने ओढ़ा-रमा कौन किस तन
अनूठा रे संगम
अगोचर समागम
हो कंठ फूटा, अनहद झमाझम
खुले केश नाचे तृषा ही सुधा बन
हे शून्यशिल्पे
विभो हे विभूते
तेरा मूक वाझ
हो बाजे झनाझन
घना घन - घना घन
øøøøøøøøø
मैं तुम्हारी राह का मुसाफिर रहा हूँ
हमेशा ही लगता रहा है मुझे कि बस
इक आह भर की दूरी है हमारे बीच
फिर मैं ओढूँगा तुम्हें,
बिछौना बनूँगा तुम्हारा,
धूल ही धूल होगी कैनवस।
हर बार मुड़ जाता है मोड़
इक उम्र के फासले से
कट के गुजर जाता है
वो कौन है ...?
जो बांध पहलु में
मेरा गर्के-दरिया होने का अरमाँ
चला गया है लांघ फासला आह का
øøøøøøøøø
राजीव को
देर रात तक रही कम्पायमान वो डाली,
तुम्हारी परवाज के वेग से
पीती रही हवा के गले में घुटे,
रुदन की खुश्क लय
उतरता रहा विलाप जड़ों में
तुम जो उतर गए,
गंधलाए शब्द की
हुमस भरी नाभि में,
तिडक़न की आवाज़
सूखते संवाद के कानों में
चटखती रही युगों-युगों
तुम जो धूप की तरह आते बेआवाज़
सब को दे जाते इक अदद साया,
जो छा लेता तुम्हीं को ......
आषाढ़ की प्रथम बूँद में भर
दबे पाँव उतरे तुम रूह की मरूधारा पे
झीनी-झीनी सी फुहारों पे सवार
तुम्हारी हँसी बहा ले गई उसे संग
कैसी विचित्र आँखों से तकती है अपलक
ये इतराई गंगा, मन ही मन मुस्कराती
मेरी अज्ञाता पर
øøøøøøøøø
मृत्यु के पार
दुमेल के होंठ हिले
कंठ में उतर गई कोई नीरव झंझा
बाँधी नहीं नाव
उस ने उस छोर भी
ना ही पलट कर देखा
इस ओर ....
खुला का खुला ...
दुमेल का मुँह
पसीने से तर-ब-तर रात
घिसती हाँफती, छूट गई है
हमारी पसलियों में
कटीली चुप्पी के साथ
टूटती रहती है लम्हा लम्हा
दुमेल के होंठों पर
मुहर सी।
øøøøøøøøø

नहीं समझ सकता हूँ
मैं अर्थ झुकी हुई पीठ का
जो छोड़ आई है - मां की कोख
शमशान की बिलबिलाती चीखों के बीच,
उस छोर के झुटपुटे से
झांकती बूढ़ी आँखों का दाह
एक पूरा संसार है
अथाह-जिस पर चढ़ी है मोटी पारदर्शी झिल्ली
øøøøøøøøø
जंग खा गई है सांकल
दीमक भी खाली बैठी है कब से
गहरा गई है झुर्रीयां दरवाजे की
सहते सहते थपेड़े बोझल चुप्पी के
भूली नहीं है कोख वेदना प्रसव की
भर उठी थी गोद जब धरती की
स्वर लहरियों से, अलापों से, राग मंजरियों से
हाँ जननी मैं नाद की संवाद की
.................
आहटों को नही रहा ध्यान
धुँआखी रसोई में सिर झुकाए
बैठे प्यालों पर मुटिया रही धुल की पर्त का
भटक गई है दस्तक
किसी शोरीले जंगल में
क्या आसमान हो गया है
किसी संगमरमरी मकबरे के
भुतइया गुम्बद सा
चुप-बेआवाज़।
øøøøøøøøø
घर
ठहर गई रात में
धूप लीपती है चौंका
पलकों पीछे।
आटा सने हैं हाथ अभी
वो लो
बजी सांकल
बोला कागा
भोर हुई
चल।
øøøøøøøøø
तमाम दूरियों का भर घूँट
मिलाता हूँ उन्हें
आमने-सामने
सीत नसों में
दौड़ती हैं बिजलियां
धँसते हैं ज्वालामुखी
मूक रहता हूँ
साक्षी।
सुनते हैं वो स्वयं को
धडक़ते हुए बजते हुए
गाते व चिल्लाते हुए।
किस छुअन की प्यास
धमनियों में भरी ज्वाला
लिए है अंग-संग
सोचता हूँ घूमता
हाथों-हाथ।
øøøøøøøøø
अयोध्या से
मैने पहले कभी तुम्हें देखा नहीं
फिर भी क्यूँ तुम्हारा अभाव
है इतना दु:साध्य
कि विदेह आत्मा की काया में
विगस आया हो कोई
रिसता शून्य
सुष्पताव्स्था में कहीं, करते रहे हैं हम
विहार यां जलक्रीड़ा
तभी तो एक बार भी मन में
नहीं उठा विचार
पहचान
को ले तुम्हारी
कैसा मोहभंग है, जबकि मैं
अनेकानेक नीहारकाय बाधायों को
लाँघ आया हूँ
शेष नहीं है अवशेष भी
सिवा
तिकोने नाखूनों से खरोंचे
रक्त स्रवित प्रतिरूप के
तुम्हारे।
कितनी गहरी गड्डïों से झाँकते हैं
श्रद्धा, भक्ति मनु, दिग्पाल
नहीं पहुँच पाऐंगे
सूर्यास्त वर्णा रेणुका को
सुषप्ति का मार्ग अविरूद्ध है अब
भग्न स्वप्न खण्डों से।
øøøøøøøøø
दीपावली
लो प्रकास का सोता फूटा, वो बड़ लागयो आकास
आ रजनी मोरे अंग समा जा तूँ क्यूँ भई उदास
तूँ क्यूँ भई उदास हो सजनी
तूँ क्यूँ भई उदास
फुलझरियों से झरें सितारे, आतिश नूर बहाय
सकल सवित मिल मंगल गावें, आज तिमर उर त्रास
तूँ क्यूँ भर्ई ..........
स्याम गति रवि ठिठुर निहारे, दामिनी दीप शिखाऐं
अंग-अंग निसि सहर समाएं, फिर भी रंग ना रास
तूँ क्यूँ भई ........
बिन ससि दर्श सों कस दीवाली, कैसो शगुन सुहाए
मैं धुँए की रेख सखी री, पावक तन को वास
मैं तो रही उदास हो साजन
मैं तो रही उदास
तूँ क्यूँ भई ..........
øøøøøøøøø
महँत लाल दास के नाम
हम तुम्हें भूले नहीं दोस्त
बौखलाय ज्वालामुखी के ऐन
दहाने पर
तुम्हारा शान्त चित आसन
अविचल।
दहकते कुम्भी पाक की
पेशानी पर
ताज़ा उतरी ओस सा वो
शीतल प्रकाश
भरता है ओज आज भी
बुढ़ा गई आत्मायों में।
रास्ते फुँफकारते थे जब
सहस्त्रमुखी नागों से
फन उठाए
कालकूट दिशायों के भीषण
अट्टïहास से
नीले पड़ रहे थे पाँव
अजन्मा शिशुओं के
भटकती चन्द्र किरणें हुई
शरणागत
तुम्हारी ही आंखों में।
हम भूले नहीं, गुरूवर।
देख रहे हैं हम
मूढ़ अन्धेरे के वक्ष से
फूटते हुए फिर, तुम्हें
आँखें मीच रही है, रात
अन्नत: अपने ही सीत तम में
जो रही समझती, निगल गई
तुम्हें सदा के लिए।
øøøøøøøøø
महात्मा गांधी को
युगों से तपती मरू-भूमि के झुलसाए बदन पे
शीतल ओस बूँद सा उतरा वो
नील गगन की गहन सुन्न वादियों से
असूर्यस्पर्शा गर्भस्थली से धरा की
पल्लवित हुआ लिए अमृत कलश
कंकालवत अस्थियों में सहेजे
विदेह सत्य का प्रकाश पुंज
बहा बन प्रेम की कल-कल धारा
दिशायों के असीम सूनेपन में
भरता मधुवन का यौवन
हाँ चलता वो जब लकुटी टेक
तो रूक जाती अटी आँधियां नफरत की
अन्धड़ों में हिंसा के हुआ नहीं
मंद जिस का तडि़त वेग
आज थका मांदा लेटा है यहाँ
दबा श्रद्धा सुमनों के बोझ से
उस की नम आँखों की
गवाही भरती है सुबह की घास
उस की आहें भर जाती है
उदास रंग, ढलती सांझ के
मानचित्र में
और कुछ और बोझल
हो जाती है हवा।
øøøøøøøøø
कुछ खाली जगहें हैं
जो लगातार
भरती हैं मुझे
पुराने स्कूल का
बिफरा बलखाता मोड़
जो खुलता है तेज़ दौड़ती
शाहराह के वक्ष पर।
राह, भरी-भरी, सूनी-सूनी
कुछ और बदहवास हो गई है
तकती रहती है टकटकी बांधे
वो पुराना एक जर्जर मकान
जिस के माथे पर चिपकाया जाता
नई फिल्म का नया पोस्टर
हर सप्ताह नियमवत।
स्कूल के वो कमरे
जिन के मुँह अब
खुलते हैं
बाज़ार की ओर
ठस रहते हैं
सचमुच की कैसटों से
कुछ खाली कुछ भरी
किसी कोने दुबका सोफा
जिस के भूरे-भूरे
चेहरे पर पड़ गई लम्बी
सफेद दरार, आर-पार
महीन कशीदा करती झुर्रीयां
कुछ-कुछ बोलती हैं
बिल्कुल मौन हो गई है
सामने को वो दीवार
उस की जांडस की शिकायत
सचमुच गम्भीर हो गई है
पिछले दिनों से
अलग लगाती है चूल्हा चौंका
और बिस्तर
उबड़ खाबड़ दांतों वाली सीडिय़ां
जो कुतरती रहती हैं अधसोए
अलसाए चन्द्र अवशेष
जम्हाई के छोर जैसी
फटी फटी स्फटिक आँखें
जम गई हैं डूब चुकी
रात की करवट पे।
कमीज का खाली बाजू
जिसे पहन वो अजनबी चेहरा
बार-बार घिसता
पार्टी दफ्तर की
संकरी अंधेरी सीडिय़ा?
धुली-दुली सी चादर पे
चित पड़े वो शब्द
हवा के बदन पे पड़े वो निशान
सूरज ढाँपता है जिन्हें चुपचाप
भरते रहते हैं सब मुझे
और मैं पड़ा रहता हूँ औंधा
øøøøøøøøø
छत, बिन बादर बिन वात
टंगी रहती है पलकों पे
दिन-दिन, रात-रात
चाटती है तरेल दूर से
अटकी जो सूखे तिनकों पे
बीत गया क्या आषाढ़
कहो तो
कालिदास।
øøøøøøøøø

दिन के शैशवकाल से
वानप्रस्थ तक
जब धारण कर गैरिक वस्त्र
बादल हो जाते हैं
समाधिस्थ
और मैं सोचता ही रहता हूँ
तुम्हारे बारे
तुम्हारी धुँधली सी छवि
है आँखों के सामने
जिस की गुम हैं
आँखे
कान
बोल
तुम हो चाँद सी सुन्दर
पर मैं क्यूँ कांप जाता हूँ
तुम्हें धारण कर।
øøøøøøøøø

तुम्हारे लिए : कुसुम
चुमता हूँ इस हवा को
सहलाता हूँ अंग-अंग इस का
सहेज सीने में ढांपता हूँ दोनों हाथों से
सुषमा तेरी सांसों की खिलती है
खेलती है देह कुँजों में
आन्दोलित करती है कोई गीत
हलकी-हलकी सी दे थपकी
ये बूँदें बारिश की
खनन बजती हैं पहन
चूड़ीयां साजन की
नन्हीं-नन्हीं सी ले मटकी
ठुमक चलती हैं भरती अंक मेरा
मैं लोटता हूँ, बिछता हूँ तुम में
हरित वसना ओढ़े पीताम्बर
उचक के लपक लेता हूँ उड़ता आकाश
ओढ़ाता हूँ तेरे दिगम्बरा बदन को,
हे अग्नि
छूता हूँ तेरा कम्पित नगन थरथराती नजरों से
हे ज्योत्सना आओ चलें सुबुक पांव धार नूपुर
परे साकार से - निराकार को दे
नक्श-नयन
रूप-गंध
स्पर्श और गान।
øøøøøøøøø

पंछी देते हैं सूरज को जुबान
पेड़ हवा को
धरती की धडक़न समझते हैं
सिर्फ सांप यां फिर कुछ-कुछ चुहे
कोयल कू ... ती है आम का बूर
मोर नाचता है मेघ
झरने जानते हैं पर्वत का राज
ओस आकाश का
मर्म खोलते हैं आग का जुगनू
चांद का दाग
गाया जा रहा कौन
तुम में
कहो तो ......।
øøøøøøøøø

उदास बहुत रात है रात ही तो है
है दूर कोई पास है बात ही तो है।
गुनगुना रहा कोई वो मरघटों के पार
टूटी डोर साँस की, साज ही तो है
ओज हो चटक रहा, हिम के भाल पर
ठिठुर तम में मर रहा, राज ही तो है।
øøøøøøøøø
मदमाती पवन लहराती चले
नागिन की तरह बलखाए के
निर्झर यों झरे उर धरणी गहैं,
ज्यूँ नैन शैल अकुलाए के
कलीयां चटकी हिय सों लिपटी,
लखि भोर सखा शर्माये के
घन गरज रहा मधु बरस रहा,
आओ पियो रे जाम छलकाए के
कहां भागा रे तिमिर,
निसि हुई रे सहर,
दिक नाच रही हुलसाए के।
øøøøøøøøø
चल रे माधव अब की बार, शिशिर उर घर करता चल
भूल कर रिसते चरण, मरकंद मधुरुत भरता चल
आस ओस निशि के मोती, लरजती स्मरण सहर कर
हो अमर ये स्वप्न सुन्दर, पग पवन दोश पे धरता चल
भोर का छिटपुट अन्धेरा, नभ उमडती साँझ बेला
छोड़ रे मन क्यूँ उलझाता, प्राण नख शिख जलता चल
यूं घाव पट घूंघट उठाएं अरूणिमा ज्यूँ मुस्कराए
तिमिर उर करता विदीरण, रश्मि निर्झर झरता चल।
øøøøøøøøø
कैसे-कैसे रंगों में खिलता ये जीवन उवपन
देख के ये समतोल सिलोना हर्षे पुलकित मेरा मन
घटा-टोप घन गरज रहा नभ से बरसे नव-जीवन
जंगल महके पंछी चहके, बहक चली मदमस्त पवन
अक्समात्
लालच का भीषण दानव, लरजाता सारा ही मधुवन
जंगल पर्वत आग लगी फिर झुलस गया सब जीवन बन
सागर तन से लपटें निकलें, माँद हुए रवि चाँद बदन
टूटी डोरी बिखरे मोती, सीत पड़ा वायू का तन
सूखी खेती रूखी बगीया, मौन है भँवरों का गुँजन
कैसे-कैसे रंगों में खिलता था वो जीवन उपवन।
øøøøøøøøø

पानी के हैं रूप अपार, महिमा इसकी अपरम्पार
पानी सकल जगत आधार, पानी का सारा पसार
मेघ रूप में जब ये भाई इन्द्रधनुष हो जाता
आसमान का सूना आंगन बगीया सा खिल जाता
तेज ताप पर्वत मस्तक जो सहन नहीं कर पाता
कोमल हृदय पिघल कर पत्थर फिर झरना हो जाता
जमुना गंगा सरस्वती सब भूल गले मिल जाऐ
एक मनोहर रूप बने जो वो सागर कहलाए
पौधों की हरियाली में पानी अपना रंग जमाए
कलियों के घूँघट में खिलता फूलों संग मुस्काए
हवा रूप में कभी तो छुप कर खेले आंख मिचोली
कभी हमारे हृदय उतर कर बन जाए हमजोली।
øøøøøøøøø

आ चाँद मैं तुम्हें सुला दूँ, बरसों से ना सोया होगा
अमावस की रात मैं काली, तामस रूप कहाऊँ
जलती पलकें मूँद के तेरी, लोरी मधुर सुनाऊँ
भवसागर थकन मिटा दूँ-बरसों से न सोया होगा
पलकन तेरी राह बुहारी, अंसुअन सेज बिछाए
मन ही मन में रहा री घुलता, दिल का दाग छुपाए
आ अंक मैं तोहे छुपा लूँ-बरसों से ......
पीला-पीला हुआ रे मुखड़ा, क्या तूने रोग लगाया
अमृत लिए मैं दर-दर भटका, प्यास नहीं बन पाया
सब मानस जलन मिटा दूँ-बरसों से .....

øøøøøøøøø
प्रेम तो ऐसो कीजिए ज्यों सावन परै फुहार
सब की झोरी झर रहे क्या गुँचा क्या खार।
प्रेम तो ऐसो कीजीए ज्यूँ जंगल की आग
सब को अंग लगाय ले क्या चँदन क्या झार।
प्रेम-प्रेम तो सब करें प्रेम करे नहीं कोए
खेत रहे नर प्रेम में नारायण हैं सोए।
भर-भर प्याला प्रेम का छलकत फिरें घटाऐं
मन की क्यारी सींच के भौंर फिरें बौराए।
प्रेम सुधा ऐसी चढ़ी नैन रवि भर आए
जित देखों पांजनि बजे ठुमकत चले हवाऐं।
प्रेम तो ऐसो हो रहे जैसो सांस समीर
न काहु ते गांठ है ना ही कोए लकीर।
खग मृग पग नूपुर बंधै अम्बर परै धमाल
झर झर झरना प्रीत का अनहद वा की ताल।
फर फर चुनर उड़े गयो पियरवा दूर
हतभागी पाछे रही हुओ करेजवा चूर।
विरहानल ऐसो जरै ज्यूँ घट जरहिं आषाढ़
रोम रोम विरहन जरै अग्न बुझी जल धार।
विरहों नीर विरहों थली विरहों घुरौ समीर
विरहों ही नभ झर रहा पावक विरहों सरीर।
क्या तेसा क्या फावड़ा मजनू क्या फरहाद
डोरी सांस ना कट रही रैना भई पहाड़।
सांझ ढरी तारे गए डूबी चाँद की नाव
सीत निसा सूरज भयो मिली ना पी की सार।
अंग अंग बिरहन जरै लोचन शीतल धार
पांव समय गिरि बाँधयी पल पल जुग सम जात।
øøøøøøøøø

रात गज़ब की नागिन जाई, बरस रहा अंधार
हो तुम्हारी नगरी-सूझत नाही हाथ
हो ......
काटन आवै चन्द्र का झूला, लाल है जमुना पार
हो हमारी नगरी, सूना है संसार
हो हमारी ................
झूठ की डोरी कपट का फँदा कालख का व्योपार
हो तुम्हारी नगरी है मकड़ी का जाल
हो हमारी ................
गहरी नदिया साथ न माँझी ले तिनके की नाव
हो हमारी नगरी आ उतरी इस पार
हो हमारी ................
पहरे झूठे सांकल टूटे पल में हुई हमार
तुम्हारी नगरी बाजे मन के तार।
हो हमारी ................
øøøøøøøøø

हम तो पंछी बांवरे संग उड़े ले जाल
क्या दाना क्या घोसला क्या गुँचा क्या डाल।
कलि के कारे दिउस रे कल काहु ते पाए।
रैना जोगन साँवरी पलक झपक भर आए।
माला क्या फेरत फिरे फिरती माला देख
कोयल कू ... ए आम को मोर हो नाचे मेघ।
बिन मनका बिन डोर रे कैसी अदभुत माल
पी की साँस में पिर रहे है जलधि चन्द्र मेह-ताल।
øøøøøøøøø
प्राण झर रहे हवा में
गीत हो गया हूँ
बज उठी रे देह वीणा
संगीत हो गया हूँ
हो गया खो कर कहीं
खो के हो गया हूँ
सुन रहा तिरते दिशा को
स्वयं में रसते हुए
स्वयं ही बहती दिशा में
रीत हो गया हूँ
गीत हो गया हूँ
हो गया खो कर कहीं
खो के हो गया हूँ
संगीत हो गया हूँ
øøøøøøøøø
दसमुख की माया घनी, दस दिस रही समाए
बाहर केता फूँकीए भीतर रहयो जीवाय।
मन माने तो रहीम है मन के मान राम
मन ही जो काफिर रहा काहे का इस्लाम।

जबहुँ मन अ-मन भया नदीया हू भई तीर।
ठुमक ठुमक पग धरहूँ रे नाच्यो पुलकत नीर।
मौतलाह न अल्लाह कहीं राम कहीं ना खुदाय।
घट-घट तूँ ही घट रहा पल कहुँ पलक झुकाय।
øøøøøøøøø

आलि री मैं प्रियतम के उर भाऊं
मेघ वर्ण, श्वेताम्बर सोहे, नीलकमल वर पाऊं।
अंग-अंग रति, तडि़त-जडि़त है
मैं तो, कोटि मनोज लजाऊँ .....।
प्रियतम देहरी आस पिया की
नीरज देह सेज बिछाऊँ
कुल-मर्याद झूठ सखी री
वा से ना पतियाऊँ ... अली री ....।
øøøøøøøøø
सोने की पिंजरा री-तन सोने का पिंजरा री
मन मराल हो री
मोतिन्ह का जाल हो री
उलझयों बहुरा री-तन सोने ....
पात झरै तो पुनि आवै
पात झरे तो पुनि आवै
नब अँधियारा री
कोई टूटयो तारा री-सोने का ...
ग्रहित भयों तो पुनि आवे
मन मयंक हो री
बूढिय़ो सगरा री-सोने .....
øøøøøøøøø

चाँद की कश्ती रात की धारा
लहर लहर कोई तारा
धार बहे पतवार बहे रे
संग बहे रे बनजारा।
धुन मुरली की तट जमुना का
नाच रही रे ब्रजबाला
ताल कदम गोवर्धन नाचे
रास रचे रे गोपाला
जोत की डोरी
पौण का झूला
झूले रे सागर सारा
झांझ गगन
बादर का बजरा
और जोगी का इकतारा
øøøøøøøøø

कोई गीत सुनाओ हमदम
मुँह तकती है मौनी सरगम
गीत हो ऐसा ज्यों नेह बरसे
हौले हौले हल्के हल्के
रूप क्षुधा-अमृत रस छलके
ज्यों गगरी ले चले ग्वालन
कोई गीत ......
बोल बहें बादर की काया
धुन ठहरी बरगद की छाया
सांझ ढरी पांधी घर आया
ज्यों साँसों में झरता चंदन
कोई गीत ......
युग्म निसि के प्रथम पहर सा
धुली धुली अधखिली नज़र सा
अधरों पे अधसोई सहर सा
ज्यों शर्माये सोते में दुल्हन
कोई गीत ......
øøøøøøøøø

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