Thursday, August 13, 2015

कलायें हमें क्या देती हैं !

कलायें हमें क्या देती हैं !

 इक बहस चली है, इँजीनियर हमें साजो-समान देते हैं, पुल बनाते हैं, सड़कें बनाते हैं, किसान अन्न उपजाता है, डाक्टर दवा-दारू करते हैं; शरीर चलता है, समाज चलता है ! लेकिन कलायें क्या देती हैं ? कवि क्या पैदा करता है ? एक अदाकार, शब्दों या रँगों का कोई चितेरा क्या देता है ? क्या वो परजीवी है ? कुछ लोग हैं जो ऐसा ही कहना चाह रहे हैं, लेकिन खुल कर कह भी नहीं पा रहे । पिछले दिनों अखबारों में कई लेख और कालम छपे हैं कि पूना के फ़िल्म इन्सटीच्यूट पर जितने पैसे खर्च किए जा रहे हैं अपनी "आई आई टीज़" पर हम उनसे आधे पैसे खर्च कर रहे हैं । कुछ सज्जन तो बहुत ही विस्तार में गए हैं, हमारे पढ़े लिखे मध्य-वर्गीय लोगों के लिए उन्होंने आंकड़ों का बहुत ही महीन ताना बाना बुना है और यह सिद्ध कर दिया है कि पूना फ़िल्म इन्सटीच्यूट जैसे सँस्थानों में एक विधार्थी पर किए जाने वाला खर्चा मैडीकल सँस्थायों पर किए जाने वाले खर्चे से कई गुणा ज़्यादा है । लिहाज़ा यह एकदम अय्याशी है, फ़िज़ूळखर्ची है । और अगर फ़िज़ूलखर्ची है तो तुरँत बँद होनी ही चाहिए ! यह तो साफ़ है कि इन सज्जनो का तर्क कहां से आ रहा है, बेशक इसकि जड़ें पूना के विधार्थीयों के सँघर्ष को ग़लत और नजायज ठहराने की जिद में है ! लेकिन जो सवाल उन्होंने उठाया है वो इससे कहीं ज़्यादा गहरा है । हमें सचमुच अपने आप से यह पूछना चाहिए कि कलायें हमें क्या देती हैं ? और यह सवाल एक साईंटिस्ट जैसी संजीदगी और तपस्वी जैसी कठोरता से पूछा जाना चाहिए ! बलराज पँडित जी कहा करते थे कि तमाम कलायें हमारी संवेदनशीलता का एक गौण उत्पाद हैं ! लेकिन मुद्दा यह है कि क्या यह "गौण उत्पाद" हमारी संवेदनशीलता की नमी को बनाए रख पाता है, उसे खुष्क होने से बचाता है, क्या यह हमारी संवेदनशीलता की खुराक है ? अगर ऐसा है तो एक कलाकार का काम उतना ही अहम है, जितना किसी किसान का, किसी मज़दूर, इँजीनियर या डाक्टर का । लेकिन यह काम है क्या ? किसान का काम तो सामने दिखता है, इँजीनियर और डाक्टर के बारे में हमें यह पूछना नहीं पड़ता । लेकिन कवि क्या करता है ? एक अदाकार या चित्रकार क्या करता है ? पल भर को हंसा या रुला देना बस ! खाली मनोरंजन या मन को बह्ला भर देना ! यह कैनवस पर पुते रँग भला हमारे भीतर किस शय को खुराक देते हैं ? और मान लो कि हम उसे ढूँढ लेते हैं और देख लेते हैं कि वो कोई ऐसी संवेदनशीलता है जो हमें बेजान चीज़ों से, मशीनों या कम्पीयूटर से अलग बनाती है ! अब अगर वो शय मर जाती है तो क्या समाज को कोई फ़र्क पड़ता है ? समाज से मेरा मतलब है कि आपके और मेरे दरमियान जो रिश्ता है, उसकी गुणवत्ता, गहराई और स्वाद पर कोई फ़र्क पड़ता है ? आपके और तमाम कायनात के दरमियान जो एक सांझ है क्या उस पर कोई फ़र्क पडता है ? यदि यह संवेदनशीलता नहीं रहती तो क्या सारे इँजीनियरों के रहते हुए भी हम ग़रीब हो जायेंगे, तमाम डक्टरों के होते हुए भी क्या हम बीमार नहीं हो जाएंगे ? लेकिन इन तमाम सवालों के जवाब के लिए तो यह जानना पड़ेगा कि यह संवेदनशीलता क्या है, जिसको कला पानी देती है, खुराक देती है ? पहीए से ले कर राकेट तक तमाम तकनीकें इन्द्रीयों की सीमायों से पार जाने की ललक का नतीजा हैं । कला भी यही करती है, मानवीय इन्द्रीयों की सीमायों को चुनौती देती है, हमें हमारी इन्द्रीयों की सीमायों के आमने-सामने ला खड़ा करती है और दिखाती है कि जो दिखता या सुनता है, वही सत्य नहीं है, आगे भी कुछ है । लेकिन यह काम तो तकनीक भी करती है, फिर भला कला की ज़रूरत ही क्या है ? ज़रूरत है, क्योंकि कला द्वार से अगे ले लर जाती है । कला कहती है इन्द्रीयां द्वार है, और द्वार को भले कितना ही बढ़ा लो, द्वार पर उमर नहीं बिताई जा सकती, महल तो आगे है । कलाएं वह चुभन देती हैं कि काले और गोरे से आगे भी कुछ है, जिसे भाग कर पकड़ा नहीं जा सकता । कोई तकनीक हमें इस जगह तक नहीं पहुँचा सकती । कलायें इन्द्रीयों की ही नहीं मन की सीमायों को भी भांपना सिखाती हैं, यादों और कल्पनायों की सीमा को सामने ला खड़ा करती हैं और उस घुटन में, उस कैद में उतरने का न्यौता देती हैं, इसके आगे का सफ़र कलाकार का अकेले का नहीं रहता हमें उसके साथ होना पड़ता है । कला कोई तकनीक नहीं जो लोटे में लोटा भर पानी भरे, यह तो अँजुली में आसमान के झर जाने जैसा कुछ है ! कला अनँत-अनँत रूपों-आकारों को जन्म देते हुए आदि कुँअरपन के बने रहने का करिश्मा है, जिसमें ना कोई पहचान टिकती है ना अहंकार ! बस इक सहज भोलापन है, जो नादान नहीं है । हो सकता है कि मैं सही जवाब ना दे पायूँ या मेरा ढूँढा हुआ आपके लिए उधार की चीज़ ही बनी रहे । तो आपको खुद इस खोज में उतरना होगा । मुझे नहीं मालूम कि आपकी खोज आपको कहां ले जाएगी ! लेकिन मैं इतना तो देख रहा हूँ कि अगर हमने आज भी गुलाब की क्यारीयों की कीमत कोयले की खानों से आंकनी जारी रखी, जैसा कि गुरूदेव टैगोर कहते थे, तो कुछ खो जाएगा ! आपके और मेरे रिश्ते में, इन्सानी रिश्ते में कुछ मर जाएगा, जिसकी कमी को पूरा करने के लिए हर गली के मोड़ पर गुप्त कैमरे लगाने पड़ेंगे, इँजीनियरों और तकनीशियनों को नए ढँग की पुलीस और पुलिसिंग तलाश करनी होगी, बसों और ट्रेनों में ही नहीं, अपने बैड्ड-रूम में लेटे हुए भी यह आवाज़ कानों में गूँजती रहेगी कि चारपाई के नीचे चैक कीजिए हो सकता है कि कोई अजनबी बम जैसी कोई चीज़ रख कर निकल गया हो । जी हां, कला-विहीन संसार में यह सब होने वाला है, कोई इँजीनियर या साइंसदान इसे रोक नहीं सकता । यकीन मानीए अपनी सारी कमीयों के बावकूद कला सँस्थानॊं पर किया जा रहा खर्चा फ़िज़ूलखर्ची नहीं है, अय्याशी तो हरगिज नहीं । ये सँस्थान हमारी संवेदनशीलता की क्यारीयां हैं, हमारे तपोवन हैं ! भले ही उन्हें आई आई टी यां ऐसी दूसरी सँस्थायों जैसा सम्मान ना दें, लेकिन खुदाया इन्हें बेज़्ज़त करना बँद करें ! 
बलराम