Monday, December 30, 2013

वादिक हिंसा


एक वेद प्रताप वैदिक जी हैं, व्यक्तिगत तौर पर तो मैं उन्हें नहीं जानता, लेकिन देखने में भले इन्सान नज़र आते हैं, दैनिक भास्कर के मुताबिक भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष भी हैं। आज उन्होंने मि० ’मोदी की पगड़ी में सुरखाब का पँख’ सजाया है, (बात कल के अदालत के फ़ैसले की है),और उनके विरोधीयों को "राजनीतिक दुराग्रही", "पागलपन" के शिकार तथा और भी कई खूबसूरत नाम दिए हैं। मोदी की मैं यहाँ बात नहीं करूँगा लेकिन वैदिक जी के इसी लेख में से कुछ उदाहरण दे कर उनकी मानसिकता को अपने दोस्तों के सामने रखूँगा। वो कहते हैं कि " यह आरोप भी सच्चाई को झुठलाता है कि दंगे भड़का कर मोदी हाथ पर हाथ धर कर बैठ गए। उन्होंने पुलीस को नहीं दौड़ाया।" मान लिया कि पुलीस बहुत दौड़ी, हमने पँजाब में ऐसे दिन देखे हैं, कई घटनायों का तो मैं खुद गवाह हूँ--चलो!, लेकिन वो पुलीस पहुँची कहाँ, दस या बीस मिनट की दूरी पर जहाँ आदमी ज़िँदा जलाए जा रहे थे,(वो शायद वैदिक हिँसा रही होगी) वो आठ घँटे में पहुँचते हैं, जहाँ वो जाते हैं, उसके रास्ते में ही वो जगह पड़ती है जहाँ यह सब घट रहा है, लेकिन वो वहाँ रुकते नहीं हैं, और बाद में उन पुलीस आफ़ीसरों को इनमो-अकराम से नवाज़ा जाता है--उनके स्टार बड़ाए जाते हैं। शायद यह सब तो मेरे जैसे "राजनैतिक दुराग्रहीयों" के मन का खब्त ही होगा, लेकिन एक जार्ज फ़र्नाँडीस थे, जिन्होंने उस समय गुजरात का दौरा किया था, और पुलीस की वहाँ की व्यवस्था के बारे में कुछ खुले-आम से बोला भी था, कुछ फ़ौज भेजने की बात वगैरह। फ़र्नाँडीस भी शायद दुराग्रही होंगे, हालांकि वो वाजपाई साहिब के आला वजीरों मे से थे। हाँ, हो सकते हैं, क्यों नहीं हो सकते, लेकिन वेद प्रताप जी जाकिया जाफ़री, जिसके प्रति आपके दिल में "सुहानुभूति" है, आपने लिखा है, और मैं मानता हूँ, आप झूठ थोड़े ही लिखेंगे, लेकिन क्या वो भी "राजनैतिक दुराग्रही" हैं, क्यूँकि मुकद्दमा तो उन्हीं ने किया है। इस हिसाब से तो ८४ के दँगों की वो तमाम विधवाएं और यतीम--जिनमें सतनामी बाई जैसे कुछ नाम तो जग जाहिर हैं-- जो आज तक किसी इन्साफ़ की उम्मीद में है, वो सब भी आप की नज़र में "राजनैतिक दुराग्रही" होंगे! मेरे हिसाब से यह हिँसा उस हिँसा से भी ज़्यादा महीण है जिसमें आप चाहे-अनचाहे लिप्त हो रहे हैं। आप उन लोगों को आशा नहीं बँधा सकते तो कम से कम ऐसी भाषा मत बोलें।

अब अगली बात जो मैं कहने जा रहा हूँ वो और भी भयँकर है,मेरे ख्याल में यह वैदिक जी के भीतर की खिड़की है, साहिब लिखते हैं,"क्या जाफ़री के पिस्तौल तानने के काम ने भीड़ को उकसाया नहीं होगा? भीड़ की इस प्रतिक्रिया को क्या एकतरफ़ा जातीय नरसंहार कहा जा सकता है?" अब एक बात तो यहाँ साफ़ हो जाती है कि वो मि० मोदी को ही नहीं उस भीड़ को भी बचा रहे हैं जो बेचारी वहाँ घूम-फिर रही थी जिसे जाफ़री साहिब ने पिस्तौल दिखा कर भड़का दिया और उन बेचारे सैंकड़ों लोगों की जान को बे-वजह मुसीबत में डाल दिया, जो पता नहीं वहाँ क्यूं इकट्ठे हुए थे! यह असंवेदनशीलता की हद है, ऐसी दलीलें मैंने पहले भी सुनी हैं कि किसी निरीह सिख के कृपाण निकालने से या किसी के लड्डू बाँटने ’भीड़" पागल हो गई। वो लोग सहमे हुए थे, और एक एम-पी कोठी में हिफ़ाज़त की उम्मीद से आए थे, वो दँगई नहीं थे। ऐसा पहले भी होता रहा है, बँटवारे के वक्त लोग लाहौर में और कई दूसरी जगहों पर ऐसे ही अपने लीडरों के घर में इकट्ठे हुए थे। लेकिन अब की बार तो हालत उससे भॊ बुरी थी। वैदिक साहिब तक तो मेरी बात पहुँचेगी नहीं, लेकिन दो-चार लोग मुझे पढ़ेंगे, उनसे में पूछना चाहता हूँ कि क्या आप भी उस मन की हालत नहीं समझ रहे हैं, जिसके घर में औरतें, बच्चे, बूढ़े अपनी जान की हिफ़ाज़त के लिए इकट्ठे हुए हैं, और जिसकी कहीं कोई सुनवाई नहीं हो रही, ना पुलीस सुन रही है, ना सरकार। अब उसके पास एक पिस्तौल है, जिसे उसने शायद निकाला होगा, क्या यही उसकी गुस्ताखी थी कि उन्होंने खुद को बचाने की जुर्रत की, जिससे "भीड़" के अहम को ठेस लगी! वैदिक साहिब का फ़ैसला तो साफ़ है, ना मोदी ज़िम्मेदार हैं, ना पुलीस, कोई ज़िम्मेदार है तो वो हैं जाफ़री, जिन्होंने पिस्तौल निकालने की ’गुस्ताख’ की। और अब "असली हत्यारे जो आज तक पकड़े नहीं गए," उनके लिए कोई ज़िम्मेदार है तो उनकी "राजनीतिक दुराग्रही" पत्नी जो अभी भी अगली अदालतों में जाने की सोच रही है।

शायद वैदिक साहिब ऐसे "दुराग्रहीयों" को सजा दिलाने के पक्षधर भी हों, पता नहीं! लेकिन एक बात जो वो डँके की चोट पर कह रहे हैं--जज की ही बात की हामी भरते हुए-- कि गुजरात में जो कुछ भी हुआ वो "एक तरफ़ा जातीय नर-संहार" नहीं था, क्योंकि उसके लिए तो हमारी भाषा मे कोई शब्द ही नहीं है, यह सब शब्द विजातीय और विदेशी हैं, इसलिए हमारी हिँसा पर लागू नहीं होते। वो लिखते हैं," जातीय नर=संहार तो एक तरफ़ा होता है, बहुत पहले से सुनियोजित होता है और वह बिना किसी उतेजना के ही किया जाता है।" खैर, वैदिक साहिब यहाँ वही मोदी साहिब वाली "ऐक्शन-रिएक्शन" वाली बात ही दोहरा रहे हैं। उनकी नज़र में गुजरात में जो हुआ वो तो गोधरा की उतेजना में हुआ, इसलिए वो जन-सँहार नहीं था। बिल्कुल ठीक साहेब, वैदिकीय हिँसा तो हिँसा होती ही नहीं। लेकिन में याद दिला दूँ कि इस नर-सँहार की योजना "पूर्व निर्धारित भी है और बिना किसी उतेजना" के भी, और इसकी जड़ें गोधरा में नहीं बाबरी बनाम राम-जन्म भूमि के अँदोलन में पड़ी हैं, जिसके लिए कोई उतेजना कम से कम उस समय के स्माज में नहीं थी। बाबर को बीच में लाना उस शेर की दलील जैसी बात होगी जिसने मेमने से यह कहा कि अगर तूँने नहीं तो तेरे दादा ने मुझे ज़रूर गाली निकाली होगी, और फिर वो उसे खा गया, कितनी बड़ी उतेजना थी उसके पास! हे राम!

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