Thursday, March 25, 2010

शुक्र है हममहात्मा नहीं हैं ,

अभी भी यादोंके कुछ मायनेहैं ,

अभी भी उन्गलीयाँ ,

दरख्तों के सीनेपे ,

तलाशती हैं वोनाम ,

जो लड़कपन मेंलिखा था ,

और फिर गलेसे लगा लेतीहैं ,

हल्की हल्की सी पदचाप ,

चुपचाप सुनती हैं ,

हथेली ...,बस,

ज़मीन हो जाती हैं ,

अभी भी हम ,

आसमान से गिरती बूंदों में ,

किन्हीं दोस्तों के पेरों के निशां ढूंढ़ते हैं ,

जो चले गए हैं रहने सितारों में

और लौट आतेहैं बार-बार,

देह कीतलाश मेंपृथ्वी पर,

अभी आकारों का मोह गया नहींहै ,

न उनमेन हममें ,

रूप और गंध की चाह रचीबसी है अभी ,

उनमे भी हममे भी,

गान भर आओ गान होकर ,

इन्हीमें ,

स्वागत है तुम्हारा ,

शुक्र है महात्मा नहीं

बलराम


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